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प्रश्न
जाति व्यवस्था में पृथक्करण (separation) और अधिक्रम (hierarchy) की क्या भूमिका है?
उत्तर
जाति व्यवस्था के सिद्धांतों को दो समुच्चयों के संयोग के रूप में समझा जा सकता है। पहला भिन्नता और अलगाव पर आधारित है और दूसरा संपूर्णता और अधिक्रम पर। प्रत्येक जाति एक-दूसरे से भिन्न है तथा इस पृथकता का कठोरता से पालन किया जाता है। इस तरह के प्रतिबंधों में विवाह, खान-पान तथा सामाजिक अंतर्सबंध से लेकर व्यवसाय तक शामिल हैं। भिन्न-भिन्न तथा पृथक जातियों का कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं है। संपूर्णता में ही उनका अस्तित्व है।
यह सामाजिक संपूर्णता समतावादी होने के बजाय अधिक्रमित है। प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान होने के साथ-साथ एक क्रम सीढ़ी भी होती है। ऊपर से नीचे जाती एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।
जाति की यह अधिक्रमित व्यवस्था ‘शुद्धता’ तथा ‘अशुद्धता’ के अंतर पर आधारित होती है। वे जातियाँ जिन्हें कर्मकांड की दृष्टि से शुद्ध माना जाता है, उनका स्थान उच्च होता है और जिनको अशुद्ध माना जाता है, उन्हें निम्न स्थान दिया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि युद्ध में पराजित झेने वाले लोगों को निचली जाति में स्थान मिला।
जातियाँ एक-दूसरे से सिर्फ कर्मकांड की दृष्टि से ही असमान नहीं हैं। बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक तथा गैरप्रतिस्पर्धी समूह हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक जाति का इस व्यवस्था में अपना एक स्थान है तथा यह स्थान कोई दूसरी जाति नहीं ले सकती। जाति का संबंध व्यवसाय से भी होता है। व्यवस्था श्रम के विभाजन के अनुरूप कार्य करती है। इसमें परिवर्तनशीलता की अनुमति नहीं होती। पृथक्करण तथा अधिक्रम का विचार भारतीय समाज में भेदभाव, असमानता तथा अन्नायमूलक व्यवस्था की तरफ इंगित करता है।