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प्रश्न
देशों के सामने फिलहाल जो खतरे मौजूद हैं उनमें परमाण्विक हथियार का सुरक्षा अथवा अपराध के लिए बड़ा सिमित उपयोग रह गया है। इस कथन का विस्तार करें।
उत्तर
सुरक्षा की परंपरागत धारण में स्वीकार किया जाता है की हिंसा का यथसंभव सिमित इस्तेमाल होना चाहिए। आज लगभग पूरा विश्व मानता है की किसी देश को युद्ध उचित कारणों अर्थात आत्म - रक्षा अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए। किसी युद्ध में युद्ध साधनों का सिमित इस्तेमाल होना चाहिए। सेना को उतने ही बल का प्रयोग करना चाहिए जितना आत्मरक्षा के लिए जरुरी हो और उससे एक सिमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए। बल का प्रयोग करना चाहिए जितना आत्मरक्षा के लिए जरुरी हो और उससे एक सिमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए। बल प्रयोग तभी किया जाए जब बाकी उपाय असफल हो गए हों। सुरक्षा की परंपरागत धारणा इस संभावना से इंकार नहीं करती की देशों के बीच किसी न किसी रूप में सहयोग हो। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है - निरस्त्रीकरण, अस्त्र - नियंत्रण तथा विश्वास की बहाली।
- निरस्त्रीकरण - निरस्त्रीकरण की माँग होती है की सभी राज्य चाहे उनका आकार, ताकत और प्रभाव कुछ भी हो, कुछ खास किस्म के हथियारों के निर्माण से बाज आएँ। उदाहरण के लिए, 1972 की जैविक हथियार संधि (बॉयोलॉजिक बिपनस संवेंशन, BWC) तथा 1992 की रासायनिक हथियार संधि (केमिकल वीपन्स कवेंशन CWC) में ऐसे हथियारों को बनाना और रखना प्रतिवधित कर दिया गया है। पहली संधि पर 100 से ज्यादा देशों के हस्ताक्षर किए हैं और इनमे से 14 को छोड़कर शेष ने दूसरी संधि और भी हस्ताक्षर किए। इन दोनों संधियों पर दस्तखत करने वालों में सभी महाशक्तियों शामिल हैं। लेकिन हमशक्तियाँ - अमरीका तथा सोवियत संघ सामूहिक संहार के अस्त्र यानी परमाण्विक हथियार का विकल्प नहीं छोड़ना चाहती थी इसलिए दोनों ने अस्त्र - नियंत्रण का सहारा लिया।
- अस्त्र नियंत्रण - अस्त्र नियंत्रण के अंतर्गत हथियारों को विकसित करने अथवा उनको हासिल करने के संबंध के कुछ कायदे - कानूनों का पालन करना पड़ता हैं। सन 1972 की एंटी बेलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) ने अमरीका और सोवियत संघ को वैलेस्टिक मिसाइल को रक्षा - कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका। ऐसे प्रक्षेपास्त्रों से हमले की शुरुआत की जा सकती थी। संधि में दोनों देशों को सिमित संख्या में ऐसी रक्षा - प्रणाली तैनात करने की अनुमति थी लेकिन इस संधि ने दोनों देशों को ऐसी रक्षा - प्रणाली के व्यापक उत्पादन से रोक दिया।
- विश्वास को बहाली - सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में यह बात भी स्वीकार की गई है की विश्वास बहाली के उपायों से देशों के बीच हिंसाचार कम किया जा सकता है। विश्वास बहाली की प्रक्रिया में सैन्य टकराव और प्रतिद्वद्विंता वाले देश सूचनाओं तथा विचारों के नियमित आदान - प्रदान का फैसला करते है। दो देश एक - दूसरे को यह भी बताते हैं की उनके पास किस तरह के सैन्य - बल हैं। ये यह भी बता सकते हैं की इन बलों को कहाँ तैनात किया जा रहा है। संक्षेप में कहे तो विश्वास बहाली की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है की प्रतिद्वेंद्वी देश किसी गलतफ़हमी या गफ़लता में पढ़कर जंग के लिए आमादा न हो जाएँ। आज विभिन्न देशों के समाने अनेक तरह के खतरे मौजूद हैं। इन खतरों को टालने अथवा इनका दमन करने के सैन्य या परमाण्विक विकल्प बहुत सिमित हैं। आज विभिन्न देशों के पास परमाणु हथियार हैं या उन्हें बनाने की क्षमता है। ऐसी स्थिति में एक देश का परमाण्विक हमला उसे उल्टा पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में एक देश समाप्त हो सकता है पर दूसरा भी बच नहीं सकता आज के खतरों से निपटने में सैन्य बल उपयुक्त नहीं है। उदाहरण के लिए अमरीका का इराक और अफगानिस्तान पर हमला किसी समस्या को सुलझा नहीं पाया और वह खतरा आज भी मैजूद है। निष्कर्ष: कुल मिलाकर देखा जाए तो सुरक्षा की परंपरागत धारणा मुख्य रूप से सैन्य बल के प्रयोग अथवा सैन्य बल के प्रयोग की आशंका से संबद्ध है। सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में माना जाता है की सैन्य बल से सुरक्षा को खतरा पहुँचता है और सैन्य बल से ही सुरक्षा को बरकरार रखा जा सकता है।